मानव सभ्यता, शिवलिंग

प्राचीन काल में जो सिद्ध पुरुष याने सिद्धर होते थे वे एक बेहतरीन चिकित्सक होते थे। जंगलों में कंदराओं में बैठ के,ध्यान करके,चिंतन कर के मानव कल्याण हेतु विभिन्न औषधियों का निर्माण करते थे। नित नवीन रसायन याने केमिकल का अनुसंधान करते थे जिनसे कि घातक से घातक बीमारियों से छुटकारा पाया जा सके। सिद्धर हमेशा मानव कल्याण और शिव भक्ति में ही लीन होते थे।

भारत में सतत गुरु चेला परंपरा का ही देन है कि भारत में सबसे बेहतर चिकित्सा प्रणाली विकसित हुई। सबसे पहले सिद्धर देवों के देव बूढ़ा बाबा महादेव थे और उनके ही चेलों ने आगे गुरु-चेला परंपरा का निर्वहन करते हुए मानव कल्याण में एक से एक योगदान दिए और अनन्य विज्ञान को विकसित किये।

शिवलिंग के इतने प्रकार विकसित हुए कि सभी शिवलिंग में कोई न कोई गुण जरूर होता था जिसमें कि मानव शरीर को स्वस्थ रखा जा सके।

इसी क्रम में करीब 5000 साल पहले एक सिद्धर हुए ‘सिद्धर भोगर’! इनके गुरु थे कलंगी नाथ जो बनारस के थे। भोगर/भोगनाथ बहुत ही विख्यात सिद्धर हुए। इन्होंने चिकित्सा विज्ञान में कई अहम योगदान दिए और इनका योगदान केवल भारत में ही नहीं बल्कि चीन में भी रहा। चीन में जा कर इन्होंने ही ‘द्वैत वाद’ याने डुआलिटी कॉन्सेप्ट से सबको अवगत भी कराया। चीन में ये सिद्धान्त ‘यिंग-यांग'(Ying-Yang) के रूप में जाना जाता है। जो कि ‘शिव-शक्ति’ ही है।बहुतों का मानना है कि सिद्धर भोगर ही लाओत्से (Lao Tse) थे जो कि चीन चिकित्सा और दर्शन के पितामह माने जाते हैं। इनका एक नाम ‘Bo-Yang’ भी है जिसमें कि ‘Bo’ Bogam/Bhogam से लिया गया है।।जिस तरह से चेन्नई से उठ के मार्शल आर्ट चीन गया उसी तरह ये सिद्धर विज्ञान भी यहीं से उठ के वहां गया। भारत में तो अब बहुत कम लेकिन चीन में अभी भी इनकी जीवंतता साफ देख सकते हैं। सिद्धर भोगर के शिष्य हुए महावतार बाबाजी जो क्रिया योग को प्रतिपादित किये और सर्वसुलभ भी।

सिद्धर एकदम मास्टर होते थे केमिकल के।कई प्रकार के शिवलिंग और प्रयोगशाला बनाते थे। मरक्यूरी या पारद शिवलिंग की महत्ता से सब वाकिफ होंगे ही। इनके मास्टर भी सिद्धर गुरु ही होते थे। अगर इनके कम्पोजिशन में जरा सा भी हेर फेर हुआ तो सीधे मौत को ही प्राप्त करेंगे। चीन का एक राजा यही मिश्रण के चलते अमर होना चाहता था लेकिन गलत कम्पोजिशन के चलते भगवान को प्यारे हो गए।

अगर किन्हीं को इनसे(सिद्धर) ज्ञान प्राप्त करना हो तो सिद्धर गुरु के सानिध्य में 30 वर्ष तक रहना होता था तब जा के आपको इनके फॉर्मूले मिल सकते थे।लेकिन मानव कल्याण के विरुद्ध इनका प्रयोग बिल्कुल ही वर्जित था।

करीब 23 प्रकार के शिवलिंग बनाये जाते थे जिसकी अपनी-अपनी महत्ता थी। पारद शिवलिंग से अब बहुत कोई अनभिज्ञ नहीं है।

लेकिन आज बात करेंगे और एक शिवलिंग की जो बहुत ही पावरफुल है। केवल सिद्धर ही इनको बना सकते हैं।और ये शिवलिंग है ‘नवपाशनम’ शिवलिंग! नव मतलब नौ याने नाइन और पाशनम मतलब ‘विष’ या ज़हर! मतलब कि नौ प्रकार के विष के कम्पोजिशन से बना शिवलिंग।

अब इस शिवलिंग की जरूरत क्यों ???

सुने होंगे.. जहर जहर को काटता है।

आज सबसे विषैले सांपों के विष से कैंसर की दवाइयां बनाई जाती है। याने दर्द दर्द को मारता है।सांपों के विष बहुत महंगे दामों में बिकते हैं अभी।

सिद्धर गुरु कुल 64 प्रकार के विष की खोज किये थे जिसमें कि 32 प्राकृतिक विष थे और 32 कृत्रिम याने आर्टिफिशियल। और इन 64 विषों में से 9 विषों के कम्पोजिशन से नवपाशनम शिवलिंग बनाया जाता था। नौ विष जो कॉमन थे वे विष हैं- वीरम,पूरम,रसम,जठीलिंगम,कंदगम,गौरी पाशनम,वेल्लाई पाशनम,मृद्धरसिंह और सिलासत।

इनके मिश्रण से जो शिवलिंग बनता था वो नवपाशनम शिवलिंग कहलाता था। ये शिवलिंग पानी में पार्शियली सॉल्युबल याने घुलनशील होता था। मतलब कि अगर इनके ऊपर जल चढ़ाया जाय या इन्हें जल में रखा जाय तो ये पानी में धीरे-धीरे घुलता जाता है। मतलब कि जो नौ प्रकार के विष के संयोग से मिश्रण बना वो मिश्रण पानी में घुल के पानी को चमत्कारिक पानी बना देता था।जो कि कई बीमारियों का रामबाण इलाज होता था।

तमिलनाडु के सिंगपेरुमल कोइल से तीन किलोमीटर दूर तिरुक्कचुर में एक बहुत ही प्राचीन मन्दिर है ‘औषधिस्वरर मंदिर’ जो कि महादेव का है। नाम से ही पता चल रहा है कि ये औषधि से संबंधित है। इस जगह का नाम भी औषधगिरि है जहाँ कई दुर्लभ औषधियां पाई जाती है। इस मंदिर का और एक नाम है ‘मरुंधिस्वरर’मन्दिर।

एक मान्यता के अनुसार इंद्र के आदेश पे अश्विनी कुमार इस जगह पे कुछ दुर्लभ जड़ी बूटी की खोज में यहाँ आये थे और भगवान शिव की आराधना किये थे। तब शिव जी यहाँ इनको औषधि का ज्ञान दिए थे।

और एक मान्यता अनुसार यहाँ अगस्त्य मुनि शिव की आराधना किये थे और के औषधि व रसायन का ज्ञान लिए थे। आगे सिद्धर भोगर नवपाशनम शिवलिंग भी बनाते हैं।

यहां जो कुछ भी हो लेकिन ये बात तय है कि ये जगह औषधि का केंद्र था बल्कि अब भी है।अभी भी लोग जो बीमारी से ग्रसित होते हैं यहां आते है और एक गड्ढे में रखी मिट्टी को माथे पे लगाते हैं जिनसे कि आराम भी मिलता है। गड्ढे की मिट्टी के बारे में आगे बताते हैं..!

मंदिर प्रांगण के उत्तर-पूर्व दिशा में एक गहरा कुँवा है जो कि ‘औषध-तीर्थम’ कहलाता है। कुँवा करीब 100 फीट गहरा है.. कुंवे के एक साइड से सीढ़ी के माध्यम से एंट्रेंस है जो कुंवे को बॉटम को जाता है। 60 सीढ़ियां हैं यहाँ।और इस कुंवे का जो पानी है वो बड़ा विलक्षण है। इसी कुंवे के पानी को निकाल कर बाहर गड्ढे में डाला जाता है और पानी सूखने के बाद जो मिट्टी वहां रहता है उसी को लोग माथे पे लगाते हैं। कई किसान उस मिट्टी को ला कर अपने खेतों में छिंटते हैं ताकि फसल अच्छी हो।

अब कुंवे के पानी इतना खास या विलक्षण होना क्यों और कैसे ?? इस कुंवे के पानी से आम स्वस्थ व्यक्ति को संपर्क करने नहीं दिया जाता। कारण ?? कारण बताया गया कि जो स्वस्थ आदमी इनके संपर्क में आया वो बीमार हो गया और जो बीमार है वो स्वस्थ हो गया। तो फिर पानी में खासियत ?? तो खासियत ये कि ये सामान्य पानी याने नॉर्मल वाटर नहीं है बल्कि ये ‘भारी जल’ याने ‘हैवी वाटर’ है। समथिंग अमेजिंग न??

हैवी वाटर की कहानी बहुत लंबी है। पश्चिम में तो इसके चलते कितना मार हुआ है। अभी इसपे आगे आते हैं।

तो इस कुंवे में हैवी वाटर कैसे फॉर्म होता है/था ??

तो इस कुंवे में नवपाशनम शिवलिंग था और इनसे जो घुलनशील मिश्रण निकलता था वो मिश्रण इस नॉर्मल वाटर याने H2O को हैवी वाटर याने D2O में बदल देता था। अभी इस कुंवे में शिवलिंग नहीं है। या तो ये चोरी कर लिया गया या फिर समय के साथ घुलते-घुलते ये समाप्त हो गया।लेकिन इस कुंवे के जल में अभी भी वो गुण बरकरार है।

अभी इस हैवी वाटर के फायदे ???

मॉडर्न मेडिकल साइंस की माने तो इसका बहुत उपयोग है। लंग कैंसर जैसी बीमारियों को क्योर करने में इसका बहुत इस्तेमाल होता है। इसके अलावे स्कीन डीसीजेस,डाइबिटीज, हाई कोलेस्ट्रॉल,हाई ब्लड प्रेशर,ब्लड में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ाने जैसी कई बीमारियों में ये मददगार होती है।

हैवी वाटर के मॉडर्न हिस्ट्री की बात करे तो अमेरिकन साइंटिस्ट नोबेल लौरेट और हैरोल्ड उरे ने सन 1931 में हैवी वाटर याने ड्यूटेरियम आइसोटोप की खोज की। मने कि इनको खोजे हुए अभी सौ साल भी नहीं हुए हैं। और तिरुक्कचुर मंदिर में कुंवे में न प्रवेश का बोर्ड लगे 100 साल से ऊपर हो गया है और अब तक उसमें हैवी वाटर है।

सेकंड वर्ल्ड वार के समय हैवी वाटर का भारी डिमांड था। कई तरह के मेथड थे इसको बनाने के। कई-कई प्रोजेक्ट्स चले थे उस समय हैवी वाटर को ले के कई देशों में। इसका सबसे बड़ा यूज था न्यूक्लियर रिएक्टर में मॉडरेटर के रूप में इसका उपयोग। और इसके चलते ही इसके लिए भारी डिमांड था। सोवियत यूनियन के हैवी वाटर प्रोजेक्ट को तो जर्मन ने ध्वस्त तक कर दिया था। एक समय पूरे सोवियत यूनियन के पास केवल 2-3 किलो ही हैवी वाटर था और इनके पास जो हैवी वाटर से रिलेटड रिसर्च पेपर थे उन सभी को गायब कर दिया गया था। तब जा के ये अमेरिका से भीख मांग के हैवी वाटर मंगवाया था। वो भी 1943 में बस 1 किलो दिया था फिर 1945 में 100 किलो।

इधर नॉर्वे में 1934 में नोरस्क हाइड्रो नाम की जर्मन बेस्ड कम्पनी ने एक हैवी वाटर प्लांट बिठाया। जर्मनी न्यूक्लियर वेपन के मामले में बहुत आगे निकल रहा था और इसके लिए उनके न्यूक्लियर रिएक्टर के लिए हैवी वाटर का होना बहुत जरूरी था। और इनके हैवी वाटर प्लांट को ब्रिटश और इनके अलाइंस ने उड़ा देने की योजना बनाई। करीब दो साल तक इस प्लांट को उड़ाने को कितने ही ऑपरेशन हुए जिसमें कि ‘ऑपरेशन फ्रेशमेन’ और ‘ऑपरेशन गनरसाइड’ प्रमुख है।16 नम्बर 1943 को अलाइड एयर फोर्सेस ने करीब 400 बम बरसाए।लेकिन जर्मनी ने किसी तरह से वहां से हैवी वाटर को निकाल कर जर्मनी ले जाने में सफल रहे।

मने कि समझिये कि सेकंड वर्ल्ड वार के समय हैवी वाटर के लिए कितनी ही जिंदगियां कुर्बान हो गई थी।बहुत मारा मारी हुई थी। टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के लिए होड़ मची हुई थी। कई तरह के प्रोसेस थे इनको बनाने के लिए।

और इधर भारत में हजारों सालों से बस एक शिवलिंग की मदद से हैवी वाटर बनाया जाता था कि जो मानव कल्याण हेतु ही उपयोग में था।

सेकंड वर्ल्ड वार के पहले बहुत से जर्मन साइंटिस्ट भारत के मंदिरों के खाक छानते भूलते थे। और विशेष कर दक्षिण के मंदिरों के। ये यहाँ से बहुत कुछ कॉपी कर के ले के गए।बाद में जब ब्रिटिशों को पता चला कि मंदिरों से जर्मन बहुत कुछ सीक्रेट्स उठा के ले जा रहे हैं तो अंग्रेजों ने बहुत से मंदिरों में उकेरे गए चित्रों को ध्वस्त करना शुरू कर दिया। और उन्हीं का परिणाम है कि आज जितने भी प्राचीन मंदिरों में टूटे फूटे कलाकृति या चित्र दिखाई देते हैं वो सब अंग्रेजों के द्वारा ही खण्डित किये गए हैं। और आज जो हम बोलते हैं न कि जर्मनी संस्कृत पे इतना जोर क्यों देता है तो इसका कारण यही है।लेकिन ये मानव के विनाश की ओर जाते यही समस्या है।

उत्तर में ‘नाथ’ और दक्षिण में ‘सिद्धर’ और इन दोनों के गुरु आदि गुरु बूढ़ा बाबा। भारत में ‘शिव-शक्ति’ तो चीन में ‘यिंग-यांग’!! दर्शन,अध्यात्म और विज्ञान का अद्भुत तारतम्य।

और नासा जाएंगे तो सबसे ज्यादा मुंडी भारत और चीन के ही।

लेकिन फिर भी क्या.. भारत तो है ही पिछड़ों और साँप बिच्छुओं का देश। अवैज्ञानिक और अंधविश्वासी देश।हमें तो रहना खाना सिखाया विदेशियों ने नहीं तो आज भी हम ढिबरिये में ही जिनगी गुजार रहे होते।

संघी गंगवा

खोपोली से।

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